zindagi ek safar
एक और अदबी चराग़ बुझ गया
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मुज़फ़्फ़रनगर की सरज़jameenن ने अब तक कई शायरों को जन्म दिया है, जिन्होंने उर्दू ज़बान‑ओ‑अदब की ख़िदमत की और साथ‑ही‑साथ मुज़फ़्फ़रनगर का नाम अदबी दुनिया में रौशन किया।
लेकिन उस्ताद शायर जनाब सलीम मुज़फ़्फ़रनगरी — जिन्हें आज मरहूम लिखते हुए कलेजा मुँह को आ रहा है — ने जितनी ख़ामोशी से उर्दू ज़बान‑ओ‑अदब और ग़ज़ल के गेसू सँवारे, वह तारीख़ में सुनहरे हरफ़ों में लिखने के क़ाबिल है।
आज उनके इंतक़ाल से मुज़फ़्फ़रनगर का एक ऐसा रौशन चराग़ गुल हो गया है जिसकी कमी बरसों तक महसूस की जाती रहेगी।
वह न सिर्फ़ एक मंज़े‑हुए शायर थे, बल्कि मुज़फ़्फ़रनगर की अदबी आबरू भी थे। साथ ही साथ बेहद मुख़लिस, हमदर्द और मेहमान‑नवाज़ इंसान थे।
मिज़ाज में बला की सादगी उनका ख़ूबसूरत ज़ेवर था; हमेशा सब्र‑ओ‑शुक्र का पुतला रहे।
सब से ख़ंदा‑पेशानी से मिलना उनके अख़्लाक़‑ओ‑किरदार की ख़ूबसूरत झलक थी।
वह उर्दू अदब का ऐसा रौशन चराग़ थे, जिनसे न जाने कितने अदबी चराग़ रौशन हुए, जो मौजूदा वक़्त में उर्दू ज़बान‑ओ‑अदब की ख़िदमत करते नज़र आ रहे हैं।
आज वे हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी मयारी, वक़्त‑ओ‑हालात और समाज से जुड़ी हुई शायरी को बड़े अदब‑ओ‑एहतराम के साथ हमेशा याद किया जाता रहेगा।
इन अशआर के साथ उन्हें ख़िराज‑ए‑अक़ीदत पेश करता हूँ…
याद आया है जब तेरा चेहरा,
आँसुओं ने भिगो दिया चेहरा।
अक्स तेरा कहीं नहीं मिलता,
रोज़ देखा है एक नया चेहरा।
ख़ुदा से दुआ है कि वह उनकी मग़फ़िरत फरमाए, दर्जात बुलंद करे, क़ब्र में आराम‑ओ‑सुकून की ज़िंदगी अता करे, और उनके घरवालों व मुतअल्लिक़ीन को सब्र‑ए‑जमील अता फरमाए।
आमीन, या रब्बुल आलमीन।
